क्या कलियुग से पहले अन्य मनुष्य निर्मित सम्प्रदाय/धर्म थे ??
क्या पहले युगों में अन्य मनुष्य निर्मित पंथ /सम्प्रदाय / और तथा कथित धर्म (अधर्म ) थे ???
आज कल गूगल ज्ञान चल रहा है कि जब गीता/पुराण कहे गए तब अन्य सम्प्रदाय या तथा कथित धर्म (अधर्म ) /पंथ नहीं थे।
बिना पढ़े लोगों को कैसे पता की जब गीता/ पुराण कहे गए तब अन्य कोई तथा कथित धर्म(अधर्म ) /सम्प्रदाय/ पंथ नहीं था ?
और अगर नहीं था तो फिर यह तथा कथित धर्म (अधर्म) सम्प्रदाय/पंथ क्यों बनाए गए ?
तो क्या यह धर्म भेद और जाती भेद उन्ही ने किया जिन्होंने अलग सम्प्रदाय /धर्म / पंथ बनायें और ऊँच नीच का भेद डाल दिया ?
जो उन्हें माने उसे ही तो पर धर्मी , विधर्मी , अधर्मी या सेक्युलर कहेंगे ?
क्या भगवान ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि कलियुग में मनुष्य निर्मित तथा कथित धर्म (अधर्म)/सम्प्रदाय बनाए जाएँगे ? स्वधर्म का त्याग होगा ?
और अगर भविष्य वाणी कर दी तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह अधर्म , पर धर्म , विधर्म है ?
सनातन धर्म में तो मात्र चार वर्ण है और किसी भी सनातन ग्रंथ में किसी भी वर्ण को नीच कहा गया है तो दिखाओ ?
किंतु असंख्य जातियाँ बना डाली, किसी सनातन ग्रंथ में लिखी है तो दिखाओ ?
अपने सनातन शास्त्र पढ़े और पढ़ाए गए होते तो क्या ऊँच नीच और अन्य भ्रामक विषय से जो विष घोला क्या वह सम्भव होता ?
अधर्म तब भी था,आज भी है ।
सनातन शास्त्रों में सतयुग में धर्म चार चरण पर , त्रेता में तीन चरण पर , द्वापर में दो चरण पर, और कलियुग में एक चरण पर विराजमान होता है ।
श्रीमद्भागवत पुराण सप्तम स्कंद अध्याय 15 , श्लोक संख्या 12,13,14 में सुस्पष्ट वर्णित है कि 👇
अधर्म की पाँच शाखायें हैं, विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर दे ।।१२।।
जिस कार्य को धर्म बुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े वह विधर्म है । किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुष के लिए उपदेश किया हुआ धर्म परधर्म है ।पाखंड या दम्भ का नाम उपधर्म अथवा उपमा है । शास्त्र के वचनो का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना छल है ।।१३।।
मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत जिसे स्वेच्छा से धर्म मान लेता है, वह आभास है। अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म है वह भला किसे शांति नहीं देते।। १४।।
पर धर्म के त्याग का निर्देश दिया गया हे।
जिसने धर्म परिवर्तन कर लिया हो उसे परधर्म त्याग कर अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए ।
रामचरितमानस उत्तर कांड में भी पंथो का वर्णन आया है 👇
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सद्धग्रंथ ।
दमभिन्न निज मति कल्पि प्रगट किए बहु पंथ ।।९७ क।।
कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया , सद्धग्रंथ लुप्त हो गए , दमभियो ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए ।।९७ क।।
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।
तेहिं न चलहि नर मोह बस कल्पहि पंथ अनेक।। १०० ख।।
वेदसम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेको नये- नये पंथो की कल्पना करते है ।। १०० ख।।
गीता अध्याय 3 श्लोक 35 में सुस्पष्ट कहा है कि 👇
अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है, दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
बुद्धि जीवी यहाँ पर भी एक प्रशन चिन्ह लगा सकते हैं की यहाँ पर तो वर्ण धर्म की बात कही गयी है तो बुद्धिजीवियों 👇
१. अगर वर्ण धर्म ही नहीं त्याग सकते तो क्या अपना सनातन धर्म त्याग कर के कोई पंथ/ सम्प्रदाय / धर्म बना सकते हैं?
२. पहले केवल सनातन धर्म था और अधर्मी , मलेछ भी थे , विधर्मी /अधर्मी / पर धर्मी को भी मल्लेच बताया गया है पुराणो में.....
भागवत गीता , पुराण , रामायण , महाभारत , अन्य सभी सनातन ग्रंथ केवल द्वापर युग के लिए ही नहीं कहे गए हैं, यह युगों युगों के लिए कहे गये हैं ।
३. इन पंथो ने कौन से वर्ण व्यवस्था का पालन किया है ?
४. जो सनातन हिंदुओं से निकले हैं वो अब निकल गए हैं।हर ग़ैर सनातनी तुम्हारा विरोधी है , अगर वह विरोधी नहीं होता तो ग़ैर सनातनी नहीं होता ।
५. अपने सनातन ग्रंथ पुराण , रामायण , गीता , महाभारत तथा अन्य सनातन ग्रंथो का स्वाध्याय करें और सुनी सुनाई बातों में ना आयें।
चींटी को लिप्स्टिक लगा सकते है किंतु सेकूलरो को समझना असम्भव है ।
धर्म एक सनातन - नित्य नवीन पुरातन , जिसका ना आदि , ना अंत , जिसका नाम शिव अर्थ कल्याण...
💐सनातन धर्म -जो था- जो है -और -जो रहेगा 💐
समझ में आए तो 💐राम राम 💐नहीं तो राम नाम सत्य है और यह ही तथ्य है ।
💐राम राम 💐