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धर्म परिवर्तन रोका जा सकता है ।


💐चर्चा विश्वास प्रणाली -४ 💐

 

💐संक्षिप्त दृष्टांत 👇

एक संयुक्त परिवार में दादी दादा, पाँचो भाई अपनी धर्म पत्नी और बालकों के साथ ग्राम में प्रेम भाव से रहते थे ।

प्रत्येक भाई के तीन और चार बालक थे, सभी भाई बहनो में भी बहुत प्रेम था। 

एक दिन दो बालक किसी के बहकावे में आकर मदिरा सेवन कर जैसे ही घर में प्रवेश हुए, तैसे ही दादा जी ने पकड़ लिया और बहुत बुरा भला कहा, मदिरा के मद में बालकों ने जैसे ही उल्टा जवाब दिया और अभद्रता का व्यवहार किया तो घर से बाहर निकल जाने का दंड सुना दिया ।

 

उनके पिता ने शोर सुनकर स्थिति देख दादा जी के निर्णय का समर्थन किया और अपने बालकों को बहुत फटकार लगायी। 

इतने में ही दोनो बालकों की माँ आ गयी और अपने बालकों की गलती पर पर्दा डालते हुए घर तोड़ने का दादा जी पर दोषारोपण करते हुए प्रलाप करने लगी ।

 

समर्थन में बालकों का एक भाई भी आ गया बोला दादा जी घर तोड़ने का काम कर रहें है , हो गयी गलती आगे से कह देंगे की नहीं करेंगे, क्या हो गया कोई तूफ़ान आ गया क्या इत्यादि इत्यादि ।

 

बालकों के पिता ने समर्थन में आए हुए बालक भाई की उद्दंडता पर संज्ञान लेते हुए उसे और अपनी अपनी पत्नी को भी फटकारते करते हुए कहा की बाबूजी अर्थात् दादा जी का निर्णय धर्ममय और सर्वोपरि है , अधर्मी को दंड का विधान शास्त्रोक्त है और अधर्म का साथ देने वाला भी अधर्मी होता है, तुम (पत्नी)को भी डाँट लगाते हुए की तुमने अपने पत्नी धर्म का पालन नहीं किया तो तुम्हारा भी निष्कासन करने में कोई दोष नहीं लगेगा।

 

यह सुनकर उन दोनो बालकों की माँ ने क्षमा प्रार्थना करते हुए अपनी और बालकों की गलती मानी और बालकों को फटकारते हुए उनसे भी क्षमा प्रार्थना करवाते हुए उचित दंड का पालन करवाने की आज्ञा बाबूजी से दिलायी।

 

बालकों ने देखा सब बड़े एक स्वर में उनके दुष्कर्म की भर्त्सना कर रहे हैं, कोई भी उनका साथ नहीं दे रहा है ।

उन्होंने क्षमा प्रार्थना के साथ पश्चाताप किया और घर से निष्कासन की उपेक्षा वैकल्पिक शास्त्रोक्त दंड ग्रहण और पालन घर उसी घर में धर्ममय जीवन व्यतीत किया। 

 

ईश्वर ने दंड का विधान अधर्म के नाश के लिए ही किया गया है, सनातन शास्त्रों के अनुसार अगर उचित समय पर उचित दंड का विधान नहीं किया जाता तो उसके दोष का लगभग आधा भाग अनुशासन धारण करवाने वाले मुखिया को भी जाता है। 

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

 

भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

 

अगर यह ही दंड प्रत्येक व्यक्ति जो अपना सनातन धर्म छोड़ कर जा रहा था अगर बहुत समझाने के बाद भी नहीं मान रहा होता और उसको दिया गया होता तो हमारे समाज, राष्ट्र और संसार की ऐसी दुर्गति ना होती  किंतु जोड़ने के नाम पर उसको लाड़ प्यार दिया गया और आज नतीजा हम सब के सामने है। 

 

* लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥

 

भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

 

💐अधर्म का खुल कर विरोध करें, सनातन धर्म का खुल कर समर्थन करें ।

💐रोग ऋण और अधर्म का तत्काल निवारण करने का प्रयास करें अन्यथा यह बड़ते है।

 

💐समझ में आए तो राम राम नहीं तो राम नाम सत्य है और यह ही तथ्य है। 💐

 

💐आप का सहमत होना आवश्यक नहीं है ।💐

💐तामसिक बुद्धि में सात्विक ज्ञान का प्रवेश हो भी तो कैसे 💐

 

💐गीता अध्याय 3 श्लोक 35 💐

💐अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है, दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।💐

 

💐राम राम💐

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